टुडे एक्सप्रेस न्यूज़ । अजय वर्मा । हर साल 15 सितम्बर को ‘विश्व लिंफोमा जागरूकता दिवस’ मनाया जाता है। इस संबंध में मैरिंगो एशिया हॉस्पिटल्स से ऑन्कोलॉजी विभाग के एचओडी डॉ. सनी जैन बताया कि हमारे शरीर में मौजूद लिम्फ नोड्स शरीर को किसी भी इन्फेक्शन से लड़ने के लिए तैयार करती हैं। गला खराब होने पर गले पर कुछ गांठें बन जाती हैं, इन गांठों को लिम्फ नोड्स कहते हैं। जब लिम्फ नोड्स में अत्यधिक मात्रा में कोशिकाएं बननी शुरू हो जाती हैं तो इन लिम्फ नोड्स का आकार बढ़ने लगता है जबकि शरीर में कोई इन्फेक्शन नहीं होता। अगर इन्फेक्शन में लिम्फ नोड्स बढती हैं तो कोई समस्या नहीं है लेकिन बिना इन्फेक्शन के लिम्फ नोड्स बढती हैं तो इसे लिंफोमा कहा जाता है। लिंफोमा ब्लड कैंसर का ही एक रूप है। महीने में ओपीडी में लगभग 4-5 मरीज लिंफोमा का आ जाते हैं।
अगर मरीज को बुखार, बिना किसी कारण शरीर का वजन घटना और रात में सोते समय बहुत ज्यादा पसीना आना लिंफोमा की ओर इशारा करता है। शरीर में गर्दन, बगल और थाई पर गांठ बनना आदि भी लिंफोमा का संकेत होती हैं। स्मोकिंग, अल्कोहल का सेवन, एनवायर्नमेंटल एक्सपोजर, ऑक्यूपेशनल हजार्ड (व्यावसायिक खतरा) को इसके लिए जिम्मेवार माना जाता है।
लिंफोमा कैंसर के दो प्रकार होते हैं- नॉन-हॉजकिन और हॉजकिन। हॉजकिन लिंफोमा आमतौर पर बच्चों में पाया जाता है जबकि नॉन-हॉजकिन लिंफोमा 24-40 साल के लोगों में देखने को मिलता है।
नॉन-हॉजकिन और हॉजकिन का इलाज बहुत ही कारगर है। इसमें 4 स्टेज होती हैं। आमतौर पर इस रोग का इलाज कीमोथेरेपी और टार्गेटेड थेरेपी देकर किया जाता है। स्टेज 1 की ठीक करने की दर लगभग 95-98 प्रतिशत होती है, स्टेज 2 की ठीक करने की दर लगभग 85-90 प्रतिशत होती है, स्टेज 3 में लगभग 70-75 फीसदी और स्टेज 4 में लगभग 60-65 फीसदी बीमारी दूर हो जाती है। जितनी जल्दी बीमारी का पता चलेगा, इलाज उतना ज्यादा अच्छा होगा।
इलाज करने के लिए या तो कीमोथेरेपी या कीमोथेरेपी+टार्गेटेड थेरेपी दी जाती है। टार्गेटेड थेरेपी बीमारी की डायग्नोसिस पर निर्भर करती है। बीमारी का पता करने के लिए लिम्फ नोड्स की बायोप्सी टेस्ट बहुत जरूरी होता है। बोन मैरो का भी बायोप्सी टेस्ट किया जाता है। लिंफोमा की स्टेज का पता करने के लिए सारे शरीर का पीईटी स्कैन (पॉज़िट्रॉन एमिशन टोमोग्राफी) किया जाता है। लिंफोमा का इलाज मुख्य तौर पर कीमोथेरेपी या कीमोथेरेपी+टार्गेटेड थेरेपी, रेडियोथेरेपी और बोन मैरो ट्रांसप्लांट द्वारा किया जाता है। शुरुआत में मरीज को कीमोथेरेपी या टार्गेटेड थेरेपी दी जाती है। अगर फिर भी मरीज की गांठ बच जाती हैं तो फिर इंवॉल्वड फील्ड रेडियोथेरेपी (आईएफआरटी) दी जाती है। अगर किसी मरीज को कीमोथेरेपी या रेडियोथेरेपी से आराम नहीं मिलता है तो उनमें बोन मैरो ट्रांसप्लांट करने की सलाह दी जाती है।