TODAY EXPRESS NEWS ( AJAY VERMA ) आजादी पाने का असली मससद हमवतन, अपने लोग, अपनी सरकार तथा अपना राज था। यह सब कानून-कायदे और नियमों के फेर में आम व खास के बीच उलझ कर गुलामी की दासता बन गई। कोई एक हाथ में कानून से बच निकलता है तो कोई बरसों जकड. जाता है। नुरा-कुश्ति के दौर में त्राहिमाम-त्राहिमाम पर वाही-वाही हावी है। बानगी में विधायिका के आगे नतमस्तक बंधी पट्टी देश के कानून का आंखों देखा दर्द बयां करता है।
मद्देनजर, 20 बरसों से स्किल इंडिया महाभियान में जी-जान से जुटी हुई सीडीटीपी योजना के सुरते -हाल बद से बदतर हो चुके है। जी हा! भारत सरकार के कौशल विकास व उघमिता मंत्रालय से वित्त पोषित, प्रदेश तकनीकी शिक्षा विभाग के माध्यम से शासकीय पोलीटेक्निक कालेजों में संचालित इस रोजगारोंमुखी महत्ती योजना के कर्मचारियों को अनुदान के अभाव में सालों-साल वेतन के लाले पडे रहते है। अगर बमुश्किल अनुदान मिल भी जाए तो राज्य सरकारों की ना- नूकर से भेजा गया पैसा प्रदेश के वित्त विभाग के रोढे से कोषालयों के बेहिसाब नियमों की भेट चढकर वापस सरकारों की तिजोरी की शोभा बन जाता है। दुष्परिणाम योजना चालु-बंद, कामगार बेगार और नवजवान कौशल से बेखबर!
बावजूद, जिम्मेदार और जवाबदार दरियाये घोडे बेचकर कुम्भकरणीय नीद में आज भी सोये हुए है। बेसुध अफसरशाही व लालफिताशाही की चुगंल से जाहिर हुकमरानों का तालिबानी फरमान है कि योजना के लिए कोषालयों के द्वार से ही संस्था को कभी कभार आने वाली अनुदान राशि मिलेंगी, सीधे संस्था के खाते में नहीं! चाहे कुछ भी हो जाए। तुगलकी घमंड में कोई भूखा मरता है तो मरे, जरूरत मंदों को हुनर मिले या ना मिले उससे इन साहबों को क्यां? यह तो लकीर के फकीर है उस पर चल के रहेंगे। आखिर ये इनके हुकमत की शान का सवाल है।
इतर, राजशाही सत्ता के दम पर जनता की आंख में धुल झोंकर कानून की आड. में मध्यप्रदेश के विधायकों को वेतन की सौगात स्वंय के खाते में अब सीधे मिलेंगी। इन्होंने भी इसे तपाक से हंसकर स्वीकार कर लिया। हां ! करेंगे क्यों नहीं कामगारों की फ्रिक जो नहीं है। ऐसा फैसला हालिया प्रदेश विधान सभा अध्यक्ष सीतारमन शर्मा के साथ संयुक्त बैठक में सभी दलों के नेताओं ने एक मतेन कर लिया । कारणों में माननीयों को वेतन व पेंशन के वास्ते कई दिनों तक सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाना पडता है। निजात पाने के इरादे से यह कदम झटके से उठाया गया।
वाह! जनाब क्यां खूब खेल खेला अपनी पारी आई तो नियमों को तोड-मरोड दिया। और दूसरों को हुकुम का गुलाम रख छोडा। यह दोहरा मापदंड ठीक नहीं है। काश! राज्य की मजबूर प्रजा और काम के दाम से बेदखल सीडीटीपी योजना के खैवनहारों के मुफिद कोई कवायद हो जाती तो सोने पे सुहागा हो जाता। बेहतरी में हुनर को शिखर की ओर जाने से कोई नहीं रोक सकता। बात एक ही वर्ग और मसले की नहीं है आज हजारों किसी ना किसी मामले में रोज कहीं ना कहीं बेवजह जिंदगी से दो-दो हाथ कर रहे है। बजाए इनकी चिंता किए बैगर अपना उल्लू सीधा कर लेना एक जनप्रतिनिधी की अकलमंदी नहीं बल्कि बेवकुफी है। खुद मां के दूजा मौसी का यह रवैया लोकतंत्र का नहीं वरन् राजतंत्र की याद दिलाता है।
जबकि होना यह चाहिए था की नुमांइदों को सदा कोषालयों और सरकारी पेच्चीदगियों से ही भुगतान मिलता रहे ताकि यह भी देखते और भोगते रहे की तुगलकी आदेशों का दंश और अंधे कानून की सजा होती क्यां है? अलबत्ता, देश का यह इकलौता काला कानून नहीं जिसके वार से आम इंसान लथपथ हो ढूंढने निकलेंगे तो कोहराम मच जाएंगा। तभी तो कहा गया है संईया भये कोतवाल तो अब डर काहेका। इस मिथ्थक को तोडकर कोई भूखा रहकर मरता और कोई खा-खाकर कहावत को हरहाल में झुटलाना ही वक्त और समानता की नजाकत है। अंत्तोगत्वा ! मत दिखाओ ऐसा अंधा कानून की लोगों का आप और कानून पर से भरोसा उठ जाऐ। यह आपका तो पता नहीं है, लेकिन हमारे कानून के लिहाज से ठीक नहीं है क्योंकि आप सत्ता में रहे या ना रहे यह जरूरी नहीं है वरन् हमारा कानून और देश मजबूत रहना बहुत जरूरी हैं।
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